आधुनिक हिन्दी साहित्य के जन्मदाता भारतेन्दु हरिश्चन्द्र इतिहास प्रसिद्ध सेठ अमीचन्द के प्रपौत्र गोपालचन्द्र 'गिरिधरदास' ज्येष्ठ पुत्र थे। इनका जन्म 9 सितम्बर, सन् 1850 ई. को इनके ननिहाल काशी ( अब वाराणसी ) में हुआ था। जब ये मात्र 5 वर्ष की आयु के थे तब इनकी माता पार्वती देवी तथा 10 वर्ष की आयु में इनके पिता गोपालचन्द्र का निधन हो गया था। इनके पिता गोपालचन्द्र जी भी कवि थे। इनकी विमाता ( सौतेली माँ ) मोहन बीबी का भारतेन्दु जी पर कोई विशेष प्रेम न होने के कारण इनके पालन-पोषण का भार कालीकदमा दाई और तिलकधारी नौकर करते थे। पिता असामयिक मृत्यु के बाद इन्होंने क्वीन्स कॉलेज, वाराणसी में तीन-चार वर्ष तक अध्ययन किया। उस समय काशी के रईसों में केवल राजा शिवप्रसाद 'सितारेहिन्द' ही अंग्रेजी पढ़े लिखे थे।
जन्म - 9 सितम्बर, सन् 1850 ई.
मृत्यु - 6 जनवरी, सन् 1885 ई.
जन्म स्थान - काशी ( अब वाराणसी ), उत्तर प्रदेश
पिता - गोपालचन्द्र 'गिरिधरदास'
माता - पार्वती देवी
भाषा - ब्रजभाषा, खड़ीबोली
आधुनिक हिन्दी साहित्य के जन्मदाता भारतेन्दु हरिश्चन्द्र इतिहास प्रसिद्ध सेठ अमीचन्द के प्रपौत्र गोपालचन्द्र 'गिरिधरदास' ज्येष्ठ पुत्र थे। इनका जन्म 9 सितम्बर, सन् 1850 ई. को इनके ननिहाल काशी ( अब वाराणसी ) में हुआ था। जब ये मात्र 5 वर्ष की आयु के थे तब इनकी माता पार्वती देवी तथा 10 वर्ष की आयु में इनके पिता गोपालचन्द्र का निधन हो गया था। इनके पिता गोपालचन्द्र जी भी कवि थे। इनकी विमाता ( सौतेली माँ ) मोहन बीबी का भारतेन्दु जी पर कोई विशेष प्रेम न होने के कारण इनके पालन-पोषण का भार कालीकदमा दाई और तिलकधारी नौकर करते थे। पिता असामयिक मृत्यु के बाद इन्होंने क्वीन्स कॉलेज, वाराणसी में तीन-चार वर्ष तक अध्ययन किया। उस समय काशी के रईसों में केवल राजा शिवप्रसाद 'सितारेहिन्द' ही अंग्रेजी पढ़े लिखे थे। इसलिए भारतेन्दु जी अंग्रेजी पढ़ने के लिए उनके पास जाया करते थे और उन्हें गुरु-तुल्य मानते थे। कॉलेज छोड़ने के बाद इन्होंने स्वाध्याय द्वारा ( खुद से पढ़कर या अध्ययन करके ) हिन्दी, संस्कृत और अंग्रेजी के अतिरिक्त मराठी, गुजराती, बांग्ला, मारवाड़ी, उर्दू, पंजाबी आदि भारतीय भाषाओं का ज्ञान प्राप्त किया। 13 वर्ष की आयु में इनका विवाह काशी के रईस लाला गुलाबराय की पुत्री मन्ना देवी से हुआ। इनके दो पुत्र और एक पुत्री थी। पुत्रों की बाल्यावस्था में ही मृत्यु हो गयी थी, जबकि पुत्री विद्यावती सुशिक्षिता थी। भारतेन्दु जी ने अनेक स्थानों की यात्राएँ कीं थी। ऋण लेने की आदत भी इन पर पड़ गयी। ऋणग्रस्तता, कौटुम्बिक तथा अन्य सांसारिक चिन्ताओं सहित क्षय रोग से पीड़ित होने के कारण 6 जनवरी, 1885 ई. को चौंतीस वर्ष चार महीने ( 34 वर्ष, 4 महीने ) की आयु में भारतेन्दु जी का देहान्त हो गया।
लक्ष्मी और सरस्वती दोनों की ही भारतेन्दु जी पर कृपा थी। इनकी मित्रमण्डली में जहाँ इनके समय के सभी लेखक, कवि एवं विद्वान् थे, वहाँ बड़े-बड़े राजा-महाराजा, रईस और सेठ-साहूकार भी थे। ये लड़कपन से परम उदार थे। इन्हें हिन्दी के प्रति अगाध और अटूट प्रेम था। इन्होंने अपनी विपुल धनराशि को राजसी ठाठ-बाट, दान, परोपकार, संस्थाओं को मुक्तहस्त से चन्दा तथा हिन्दी साहित्यकारों की सहायता आदि पर व्यय कर दिया। इनकी साहित्यिक मण्डली में पंडित बद्रीनारायण चौधरी 'प्रेमघन', पंडित बालकृष्ण भट्ट तथा पंडित प्रतापनारायण मिश्र आदि विद्वज्जन सम्मिलित थे।
भारतेन्दु जी ने हिन्दी-साहित्य की जो समृद्धि की वह सामान्य व्यक्ति के लिए असम्भव है। वे कवि, नाटककार, निबंधकार, संपादक, समाज-सुधारक सभी कुछ थे। हिन्दी गद्य के तो ये जन्मदाता माने जाते हैं। काव्य-रचना भी ये बाल्यावस्था से ही करने लगे थे। इनकी प्रतिभा सद प्रभावित होकर सन् 1880 ई. में पण्डित रघुनाथ, पण्डित सुधाकर द्विवेदी, पण्डित रामेश्वरदत्त व्यास आदि के प्रस्तावनुसार हरिश्चन्द्र जी को 'भारतेन्दु' की पदवी से विभूषित किया गया और तभी से इनके नाम के साथ भारतेन्दु हरिश्चन्द्र शब्द जुड़ गया। इन्होंने हिन्दी भाषा के प्रचार के लिए आन्दोलन चलाया। इस आन्दोलन को गति देने के लिए पत्र-पत्रिकाओं का प्रकाशन एवं संपादन किया। भारतेन्दु जी ने सन् 1968 ई. में 'कवि वचन सुधा' और सन् 1873 ई. में 'हरिश्चन्द्र मैगजीन' का सम्पादन किया था। 8 अंकों के बाद 'हरिश्चन्द्र मैगजीन' का नाम 'हरिश्चन्द्र चन्द्रिका' हो गया। हिन्दी-गद्य को नयी चाल में ढालने का श्रेय 'हरिश्चन्द्र चन्द्रिका' को ही जाता है।
भारतेन्दु जी की कृतियाँ अनेक विधाओं में उल्लेखनीय हैं। नाटक के क्षेत्र में इनकी देन सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। इन्होंने मौलिक और अनूदित सब मिलाकर सत्रह नाटकों की रचना की है, जिनकी सूची इस प्रकार है -
- विद्या सुन्दर
- रत्नावली
- पाखण्ड विडम्बन
- धनंजय विजय
- कर्पूर मंजरी
- मुद्राराक्षस
- भारत जननी
- दुर्लभ बंधु
- वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति
- सत्य हरिश्चन्द्र
- श्रीचन्द्रावली
- विषस्य विषमौषधम्भा
- रत दुर्दशा
- नीलदेवी
- अंधेर नगरी
- सती प्रताप
- प्रेम जोगिनी
नाटकों की ही भाँति इनके लिखे गए निबन्ध भी महत्वपूर्ण हैं। इनके प्रमुख निबन्ध संग्रह 'सुलोचना', 'परिहास वंचक', 'मदालसा', 'लीलावती' एवं 'दिल्ली दरबार दर्पण' हैं। भारतेन्दु ने इतिहास, पुराण, धर्म, भाषा, संगीत आदि अनेक विषयों पर निबन्ध लिखे हैं। इन्होंने जीवनियाँ और यात्रा-वृत्तान्त भी लिखे हैं।
भारतेन्दु जी के लेखन की भाषा व्यावहारिक, बोलचाल के निकट, प्रवाहमयी और जीवंत हैं। इन्होंने काव्य में ब्रजभाषा का प्रयोग किया, परन्तु गद्य के लिए खड़ीबोली को अपनाया। भाषा को सजीव बनाने के लिए इन्होंने लोकोक्ति और मुहावरों का भी सटीक प्रयोग किया।
भारतेन्दु जी अनेक भारतीय भाषाओं में कविता करते थे परन्तु ब्रजभाषा पर इनका असाधारण अधिकार था, जिसमें श्रृंगार रचना करने में ये सिद्धहस्त थे। केवल प्रेम को लेकर ही इनकी रचनाओं के सात संग्रह प्रकाशित हुए, जिनके नाम हैं -
- प्रेम फुलवारी
- प्रेम-प्रलाप
- प्रेमाश्रु-वर्णन
- प्रेम माधुरी
- प्रेम मालिका
- प्रेम-तरंग
- प्रेम सरोवर
यह समस्यापूर्ति का युग था जिसके अभ्यास ने इन्हें आशु कवि बना दिया था। भारतेन्दु हरिश्चन्द्र जी को यात्राओं का भी बहुत शौक था।
भारतेन्दु जी वास्तव में भारतेन्दु ही थे। इनकी कीर्ति-कौमुदी इनके जीवनकाल में ही चारों ओर फैल चुकी थी। इन्होंने हिन्दी को तत्कालीन विद्यालयों के पाठ्यक्रम में स्थान दिलाने का प्रयत्न किया। भारतेन्दु जी नवयुग के अग्रदूत और हिन्दी साहित्य में आधुनिकता के जन्मदाता थे। इनकी रचनाएँ देश प्रेम से ओत-प्रोत हैं। भारतवासियों की परस्पर फूट, अलगाव और सांप्रदयिकता इन्हें बहुत खटकती थी।
भारतेन्दु जी ने हिन्दी गद्य का सूत्रपात किया, साहित्य-क्षेत्र की समस्त पुरानी व् नयी विधाओं में रचना करके हिन्दी साहित्य को सर्वांगपूर्ण बनाया। इन्होंने लगभग 72 छोटे-बड़े ग्रन्थों का प्रणयन करके हिन्दी का प्रचार और प्रसार करते हुए हिन्दी जगत में अपने लिए अमरता प्राप्त कर ली। कवि सुमित्रानन्दन पन्त जी के शब्दों में -
"भारतेन्दु कर गये भारती की वीणा निर्माण।
किया अमर स्पर्शों ने जिसका बहुविधि स्वर संधान।।"
किया अमर स्पर्शों ने जिसका बहुविधि स्वर संधान।।"
सच बात तो यह है भारतेन्दु जी प्रेमी जीव थे। वे संवेदनशील और कोमल हृदय थे। इन्हीं गुणों के कारण जीवन-भर आर्थिक कष्ट सहन करते रहे। लोग इन्हें 'अजातशत्रु' कहते थे। इनका साहित्य देश-विदेश में काफी प्रसिद्ध है।
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