10 सितम्बर, 1965 में कसूर क्षेत्र में घमासान युद्ध छिड़ गया। पाकिस्तान को अपनी मँगनी के पैटन टैंकों पर बहुत नाज था। इन फौलादी टैंकों द्वारा सब कुछ रौंदते हुए भारतीय सीमा में घुस आने की उनकी योजना थी परन्तु उनका हौसला भारतीय वीरों के सामने पस्त हो गया। अपने साथियों को आगे बढ़ने के लिए ललकारते हुए अब्दुल हमीद मोर्चे से आगे बढ़े। उसने देखा, दुश्मन सिर से पैर तक लोहे का है। उनकी एन्टी टैंक बन्दूक ने आग उगलनी शुरु कर दी। हमीद का निशाना तो अचूक था ही।
'मेरे वतन में हिन्दू-मुस्लिम और सिख-ईसाई अलग-अलग कितने हैं यह तो मैं नहीं जानता पर मैं यह जरूर जानता हूँ कि मेरे देश में अस्सी करोड़ हिन्दुस्तानी बसते हैं, आज मैं उन्हीं हिन्दुस्तानियों में से एक की कहानी सुनाना चाहता हूँ। उसका नाम अब्दुल हमीद था। न वह कोई हीरो था और न मैं उसे हीरो बनाना चाहता हूँ। वह एक मामूली किसान था। उसी किसान से आपको मिलाना चाहता हूँ।
- प्रसिद्ध साहित्यकार डॉ. राही मासूम रजा के 'वीर अब्दुल हमीद' रचना से साभार उध्दृत
जन्म - 1 जुलाई, सन् 1933 ई.
शहीद - 10 सितम्बर, सन् 1965 ई.
जन्म स्थान - धामपुर ( गाजीपुर से आजमगढ़ मार्ग पर )
बचपन से ही अब्दुल हमीद की इच्छा वीर सिपाही बनने की थी। वह अपनी दादी से कहा करते थे कि मैं फौज में भर्ती होऊँगा। दादी जब कहती कि पिता की सिलाई मशीन चलाओ तब वे कहते -
"हम जाइब फौज में ! तोहरे रोकले न रुकब हम, समझलू" ?
दादी को उनकी जिद के आगे झुकना पड़ता और कहना पड़ता - "अच्छा-अच्छा जइहा फाउज में" । हमीद खुश हो जाते। इसी तरह वह अपने पिता उस्मान खाँ से भी फौज में भर्ती होने की जिद करते और कपड़ा सीने के धन्धे से इनकार कर देते।
अब्दुल हमीद ने कक्षा चार के बाद पढ़ना छोड़ दिया और वह खेल-कूद और कुश्ती में ही अपना समय बिताने लगे। उन्होंने किसी तरह सिलाई का काम सीख तो लिया पर उसमें उनका मन नहीं लगता था। उन्हें पहलवानी विरासत में मिली थी। उनके पिता और नाना दोनों ही पहलवान थे। वह सुबह जल्दी ही अखाड़े पर पहुँच जाते। दंड बैठक करते। अखाड़े की मिट्टी बदन में मलते और कुश्ती का दाँव सीखते। शाम को लकड़ी का खेल सीखते और रात को नींद में फौज और जंग के सपने देखते। वह सपने देखते कि उनके हाथों में बारह बोर की दुनाली बन्दूक है। वह सपने में ही दुश्मनों को भून डालते और जब घर लौटते तो धामपुर के लोग ढोल-तासे के साथ उनका स्वागत करने जाते। अपने इसी सपने को पूरा करने के लिए हमीद 12 सितम्बर, 1954 को फौज में भर्ती हुए।
पहले ही परेड में हवालदर ने पूछा -
"जवान क्या तुमने परेड सीखी है ?"
नहीं, जवान हमीद ने उत्तर दिया।
फिर तुम्हारे पैर ठीक क्यों पड़ते हैं ? सवाल हुआ,
"हम लकड़ी का खेल खेलते हैं", जवान ने जवाब दिया।
परेड करवाने वाले हवलदार की बाजी मात हो गई। उस्ताद परेड के मैदान से निकलकर शागिर्द बन गया और शागिर्द उस्ताद। वे अपने साथियों को भी लकड़ी का खेल सिखाते। निशाना लगाने में वे सिद्ध हस्त थे। वह उड़ती चिड़िया को भी आसानी से मार गिराते। उनके सभी साथी उनकी फुर्ती, बहादुरी और सधे हुए निशाने की प्रशंसा करते।
संयोग से अब्दुल हमीद को अपना रण-कौशल दिखाने का अवसर जल्दी ही मिल गया। 1962 में हमारे देश पर चीन का हमला हुआ। हमारे जवानों का एक जत्था चीनी फौज के घेरे में था। उनमें हमीद भी थे। लोगों को यह नहीं मालूम था कि वह साँवला सलोना जवान वीर ही नहीं, परमवीर है। यह उनकी पहली परीक्षा थी। वह मौत और शिकस्त के मुकाबले में डटे हुए थे। उनके साथी एक-एक करके कम होते जा रहे थे। उनके शरीर से खून के फौव्वारे छूट रहे थे परन्तु उनके मन में कोई कमजोरी नहीं आई। वे तनिक भी विचलित नहीं हुए। उन्हें न पिता का न माँ का, न बीबी का, न बेटे का ध्यान आया। वास्तव में वे तो एक सैनिक थे, असली हिन्दुस्तानी सैनिक। उनकी मशीनगन आग उगलती रही। धीरे-धीरे उनके गोले समाप्त हो गए। अब हमीद क्या करते ? वे मशीनगन दूसरों के हाथ में कैसे छोड़ते ? उन्होंने मशीनगन तोड़ डाली और फिर बर्फ की पहाड़ियों में रेंग कर निकल गए।
वे कंकरीली-पथरीली जमीन पर, जंगल और झाड़ियों के बीच, भूखे-प्यासे चलते रहे और एक दिन उन्हें एक बस्ती दिखाई पड़ी। थोड़ी देर के लिए उन्हें राहत महसूस हुई किन्तु बस्ती में जाते ही वह बेहोश हो गए। इस मोर्चे की बहादुरी ने जवान अब्दुल हमीद को लॉसनायक अब्दुल हमीद बना दिया। यह तारीख थी 12 मार्च, सन् 1962। इसके बाद दो-तीन वर्षों में ही हमीद को नायक हवलदारी और कम्पनी क्वार्टर मास्टरी भी हासिल हुई।
जब 1965 में पाकिस्तान ने देश पर हमला किया तो अब्दुल का खून खौल उठा। पाकिस्तान यह समझता था कि भारत के मुसलमान पाकिस्तानी आक्रमणकारियों का खुलकर विरोध न करेंगे परन्तु उनका यह समझना कोरा भ्रम था। हिन्दू और मुसलमान दोनों ही जान हथेली पर लेकर रणभूमि की ओर उमड़ पड़े। साथ ही यह सिद्ध कर दिया कि देश पहले है धर्म बाद में।
10 सितम्बर, 1965 में कसूर क्षेत्र में घमासान युद्ध छिड़ गया। पाकिस्तान को अपनी मँगनी के पैटन टैंकों पर बहुत नाज था। इन फौलादी टैंकों द्वारा सब कुछ रौंदते हुए भारतीय सीमा में घुस आने की उनकी योजना थी परन्तु उनका हौसला भारतीय वीरों के सामने पस्त हो गया। अपने साथियों को आगे बढ़ने के लिए ललकारते हुए अब्दुल हमीद मोर्चे से आगे बढ़े। उसने देखा, दुश्मन सिर से पैर तक लोहे का है। उनकी एन्टी टैंक बन्दूक ने आग उगलनी शुरु कर दी। हमीद का निशाना तो अचूक था ही।
लोहे का दैत्य एक गिरा, दूसरा गिरा, और तीसरा गिरा। 'आगे बढ़ो' हमीद ने जोर से नारा लगाया। क्षणभर में तीनों टैंक बर्बाद हो गए, पाकिस्तानी हमलावरों को मुँह की खानी पड़ी। उस समय हमीद में न जाने कौन-सी अद्भुत शक्ति भर गई थीं वह अपने प्राण हथेली पर लेकर आक्रमण करते जा रहे थे। इसी बीच कोई चीज उनके सीने से टकराई। उन्हें दर्द का एहसास नहीं हुआ। क्षण भर में ऐसा लगा कि हर तरफ अँधेरा ही अँधेरा छाता जा रहा है। उन्होंने फिर 'आगे बढ़ो' कहना चाहा, मगर होठों से शब्द न निकल सके। इसलिए उन्होंने एक ऐसा शब्द कहा, 'अल्लाह' जिसमें होठों को हिलाने की जरूरत नहीं होती। यह शब्द इतना गूँजा की रणभूमि की सारी आवाजें दब गईं। हर तरफ सन्नाटा छा गया ..........एक अनन्त सन्नाटा........ ।
उन्होंने अपने बेटों और बेटी के लिए सौगात न भेजी, परन्तु उन्होंने गाजीपुर को एक बहुत कीमती सौगात 'परमवीर चक्र' के रूप में भेजी, जो उन्होंने मरणोपरान्त प्रदान किया गया।
यह परमवीर चक्र हवलदार अब्दुल हमीद को नहीं मिला है, यह भारतीय सेना की इकाई और भारत की एकता को भी मिला है। खुशनसीब है वह माँ जिसने शान से मरने वाले और अपने देश के लिए कुर्बान हो जाने वाले अब्दुल हमीद को जन्म दिया।
देश की आजादी पर मिटने वाला वीर आज हमारे बीच नहीं है किन्तु अपने त्याग और बलिदान से वे आज भी अमर है। उनकी पावन स्मृति हमें देश-प्रेम और राष्ट्रीय-एकता का गौरवमय संदेश सुना रही है।
सभी हिन्दुस्तानी एक है, चाहे वह किसी भी मजहब के क्यों न हो।
हमीद की कुर्बानी इसकी जीती जागती मिसाल है।
आज पूरा हिन्दुस्तान इस महान सपूत को याद करते हुए उनके 50वे शहादत दिवस पर उन्हें शत शत नमन और भावभीनी श्रद्धांजलि अर्पित करता है। सादर।।
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